जरासंध का उद्धार (Emancipation Of Jarasandha)
कंस (Kans) की दो रानियाँ थी अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु से दुखी होकर वह अपने पिता जरासंध की राजधानी मगध (Magadh) चली गईं। वहाँ जाकर उन्होंने अपने पति की मृत्यु का सारा वर्णन अपने पिता से किया। जिसे सुनकर जरासंध को क्रोध आ गया और उसने यादवों को धरती पर से मिटा देने की शपथ ले ली। उसने यदुवंशियों को समाप्त करने के लिए तेईस (23) अक्षौहिणी सेना तैयार करके मथुरा (Mathura) नगर को चारों तरफ से घेर लिया। क्योंकि वह यदुवंशीं नरेश भगवान श्रीकृष्ण (Lord krishna) को मारना चाहता था।
उसकी सेना को देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि- मैं इसका नाश करूंगा, किंतु अभी उचित समय नहीं आया है। जब तक ये जीवित रहेगा पृथ्वी पर असुरों की बहुत सेना एकत्रित कर लेगा तब मैं उन असुरों को मारकर पृथ्वी का बोझ कम करूँगा क्योंकि मेरा तो अवतार ही पृथ्वी का बोझ कम करने के लिए और दुष्टों का संहार करने के लिए हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण और बलराम जी ने कवच धारण कर लिया तथा मथुरा नगर से बाहर आकर शंख का नाद बजाया। उस नाद को सुनकर जरासंध श्री कृष्ण भगवान के सन्मुख अपनी सेना लेकर आ गया और उन्हें भला बुरा कहने लगा। भगवान श्री कृष्ण के बाणों के आगे उसकी अक्षौहिणी सेना टिक नहीं पाई और सेना के सिर धड़ से अलग हो गए। किसी तरह बलराम जी ने उसका रथ तोड़ दिया और उसे पकड़ लिया। उसे मारने के लिए तलवार निकाली ही थी, कि श्री कृष्ण आ गए और उसे मारने के लिए मना करने लगे। बलराम जी बोले कितनी मुश्किल से तो यह पकड़ में आया है, आपको गाली भी दे रहा है और आप अब इसे बचाना चाहते हैं?
श्री कृष्ण बोले- इसे बचाना नहीं है इससे अपना काम निकलवाना है, काम इसकी बुद्धि से नहीं अपनी बुद्धि से करवाएँगे।
भगवान श्री कृष्ण की विलक्षण बुद्धि थी जो बलराम जी को उन्होंने समझा दिया तथा उन्होंने जरासंध को छोड़ दिया और वह अपनी राजधानी मगध लौट गया।
जरासंध की शक्ति का रहस्य (The Secret Behind Jarasandha’s Power)
हमारे शास्त्र बताते हैं- शक्ति बिना साधना के प्राप्त नहीं होती। ये बात अलग है कि शक्ति प्राप्त होने के बाद सत्पुरुष उसका सदुपयोग करते हैं तथा दुष्ट उसका दुरूपयोग करते हैं। जितने लोगों को भी शक्ति मिली, उन्हें बिना साधना के नहीं मिली। रावण, हिरण्यकश्पू आदि ने भी कितनी साधना की थी। रावण ने तो अपने सिर काट-काट कर शिवजी को चढ़ाये थे।
जरासंध रोज़ रुद्राभिषेक करता था, भगवान शंकर की अराधना करता था, इसलिए वो बहुत शक्तिशाली था। उसका एक नियम था कि रुद्राभिषेक के बाद जो कोई भी माँगने वाला आता उसे वह किसी चीज़ के लिए मना नहीं करता था। ब्राह्मण कुछ भी माँगे उन्हें कभी इंकार नहीं करता था। वो ये सब केवल भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए करता था।
जरासंध का वध (End Of Jarasandha)
एक दिन श्री कृष्ण, भीम और अर्जुन जरासंध के यहाँ दुपट्टा, त्रिपुंड माला पहनकर बढ़िया ब्राह्मण का भेष बनाकर गये। भगवान श्री कृष्ण ने जरासंध की दानवीरता की प्रशंसा की, फिर भी जरासंध उन्हें पहचान नहीं पाया।
श्री कृष्ण ने भीम और अर्जुन का परिचय दिया तथा कहा हम अठारह (18) बार मिल चुके हैं फिर भी तुम मुझे पहचाने नहीं, “मैं कृष्ण हूँ।”
जरासंध ज़ोर से हँसा और श्री कृष्ण को भगौड़ा (Ranchod Rai ) कहा।
इसी बात पर श्री कृष्ण बोले अब मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ।
जरासंध बोला- अर्जुन मुझसे अवस्था में छोटा है इसलिए मैं उससे नहीं लडूँगा और तुझ से तो मैं बिल्कुल भी नहीं लडूँगा, इसलिए वह भीम को एक गदा देता है और स्वयं एक गदा लेता है और युद्ध आरंभ कर देता है। सत्ताईस (27) दिन तक युद्ध चलता है, भीमसेन की हड्डी-हड्डी दर्द करने लगती है। जरासंध बड़ी ज़ोर से उसे गदा मारता है भीमसेन थक जाता है और श्री कृष्ण से कहता है कल से मैं युद्ध नहीं लडूँगा क्योंकि पिटाई सिर्फ़ मेरी होती है, तुम लोग अखाड़े में खड़े हुए केवल देखते हो, कोई सहायता नहीं करते हो।
श्री कृष्ण ने भीमसेन से एक दिन का समय और माँगा। अठाईसवें (28) दिन भयंकर गदा युद्ध हुआ। जरासंध ने ऐसी गदा मारी, भीमसेन को लगा अब तो प्राण गए, भीमसेन ने श्री कृष्ण की तरफ इशारा करते हुए उपाय पूछा?
श्री कृष्ण ने घास का एक तृण उठाया और उसे बीच से विदीर्ण किया तथा उल्टी दिशा में फेंक दिया।भीमसेन समझ गए और उन्हें याद आ गया, जरासंध बीच से कमजोर है क्योंकि उसका जन्म दो टुकड़ो में हुआ था और जरा नाम की राक्षसी ने उन्हें जोड़कर जीवित किया था। इसीलिए भीमसेन ने जरासंध के एक पैर को अपने दोंनो पैरों से दबाया, और दूसरे पैर को दोंनो हाथ से पकड़ा और ऊपर की तरफ चीरकर विपरीत दिशा में फेंक दिया।
शिक्षा (moral)
सत्ताईस (27) दिन तक भीमसेन अपनी शक्ति से नहीं जीत पाया। अठाईसवें (28) दिन भगवान की शक्ति का सहारा लेकर लड़ा तो विजय प्राप्त हो गई। इससे हमें पता चलता है कि हम कितने भी शक्तिशाली क्यों ना हों, भगवान की कृपा शक्ति से ही सफलता प्राप्त होती है और यही भगवान की करुणा है।
भगवान श्री कृष्ण ने जरासंध के बेटे सहदेव का अभिषेक कर दिया और जरासंध ने जिन 20,800 राजाओं को कैदी बना रखा था उन्हें मुक्त कर दिया।
संकलित – श्रीमद्भागवत-महापुराण।
लेखक – महर्षि वेदव्यास जी।