अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।16।
श्री भगवान् बोले – जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, चतुर पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 16 | Bhagavad Gita Chapter 12)-
“अनपेक्ष:”– भक्त भगवान (God) को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। उसकी दृष्टि में भगवद् प्राप्ति से बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं होता। अतः संसार की किसी भी वस्तु में उसका मन आकर्षित (attract) नहीं होता। अपने कहलाने वाले शरीर, मन-बुद्धि (Physical Body, Senses, Mind and Intellect) में भी उसका अपनापन नहीं रहता, प्रत्युत वह उनको भी भगवान का ही मानता है। जो कि वास्तव में भगवान् के ही हैं। अतः उसको शरीर निर्वाह की भी चिन्ता नहीं होती। फिर वो किस और बात की अपेक्षा करे?
भक्त पर चाहे कितनी ही बड़ी आपत्ति आ जाये, उसके चित्त पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। भयंकर से भयंकर परिस्थिति में भी वह भगवान की लीला का अनुभव करके प्रसन्न रहता है। इसलिए वह किसी प्रकार की अनुकूलता की कामना नहीं करता। यह बात खास ध्यान देने की है कि केवल इच्छा करने से शरीर निर्वाह के पदार्थ मिलते हों तथा इच्छा न करने से न मिलते हों – ऐसा कोई नियम नहीं है। वास्तव में शरीर निर्वाह की आवश्यक सामग्री स्वतः प्राप्त होती है। क्योंकि जीव मात्र के शरीर निर्वाह की आवश्यक सामग्री का प्रबन्ध भगवान् की ओर से पहले ही हुआ रहता है। इच्छा करने से तो आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति में बाधा ही आती है।
प्रायः ऐसा देखा जाता है कि भक्त के मन में कोई संकल्प उठा और वह उसको ब्रह्मण्ड में छोड़ देता है। समय के साथ दूसरे लोगों के अन्तःकरण में उसको वह चीज देने की इच्छा जाग्रत हो जाती है।भक्त का जीवन सर्वहित के लिए होता है तो वह उस सामग्री को भी सर्वहित में लगा देता है। किसी-किसी भक्त को तो यह अपेक्षा भी नहीं होती कि भगवान् दर्शन दें। दर्शन दें तो आनन्द, न दें तो आनन्द। वह तो सदा भगवान् की प्रसन्नता और कृपा को देखकर हर हाल में संतुष्ट रहता है। ऐसे निरपेक्ष भक्त के पीछे-पीछे भगवान् घूमा करते हैं।– (श्रीमद्भागवत् 11/14/16)
जो निरपेक्ष (किसी की अपेक्षा न रखने वाला) निरन्तर मेरा मनन करने वाला, शान्त (Quiet), द्वेष रहित (Devoid of Malice) और सबके प्रति समान दृष्टि रखने वाला है, उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं सदा यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसकी चरण रज मेरे ऊपर पड़ जाये और मैं पवित्र हो जाऊँ।
किसी वस्तु की इच्छा को लेकर भगवान् की भक्ति करने वाला मनुष्य इच्छित वस्तु के लिए किसी दूसरे पर भरोसा न रखकर केवल भगवान पर ही भरोसा रखकर भजन (Bhajan) करता है, भगवान की यह उदारता है कि वे उसको भी अपना भक्त मानते हैं। – (गीता 7/16) इतना ही नहीं भगवान भक्त ध्रुव (Bhakt Dhruv) की तरह उस अर्थार्थी भक्त की इच्छा पूरी करके उसको सर्वथा निस्पृहः भी बना देते हैं।
“शुचि”- शरीर में अहमता-ममता (मैं-मेरापन ) न रहने से भक्त का शरीर अत्यन्त पवित्र होता है। अन्तःकरण में राग-द्वेष, हर्ष-शोक (Joy-Grief), काम-क्रोधादि विकारों के न रहने से उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र होता है। ऐसेे बाहर-भीतर से अत्यन्त पवित्र भक्त के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन से दूसरे लोग भी पवित्र हो जाते हैं। तीर्थ सब लोगों को पवित्र करते हैं, किन्तु ऐसे भक्त तीर्थों को भी पवित्र करते हैं। पर भक्तों के मन में इसका अहंकार नहीं होता।
महाराज भागीरथ गंगाजी से कहते हैं -(श्रीमद् भागवद् 9/9/6) ‘‘माता जिन्होंने लोक-परलोक की समस्त कामनाओं का त्याग कर दिया है, जो संसार से उपरत होकर अपने-आप में शान्त है, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी साधु पुरुष हैं, वे अपने अंग स्पर्श से तुम्हारे (पापियों के अंग-स्पर्श से आये) समस्त पापों को नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदय में समस्त पापों का नाश करने वाले भगवान् सदा वास करते हैं।‘‘
’’दक्ष”- जिसने करने योग्य काम कर लिया है, वही दक्ष है। मानव- जीवन का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इसी के लिए मनुष्य शरीर मिला है। अतः जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया, अर्थात् भगवान् को प्राप्त कर लिया, वही वास्तव में दक्ष अर्थात् चतुर है। भगवान कहते हैं (श्रीमद्भागवत 11/29/22)- ‘‘विवेकियों के विवेक और चतुरों के चतुराई की पराकाष्ठा उसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्व को प्राप्त कर ले।’’ सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तव में दक्षता नहीं है।”
“उदासीन”- उदासीन शब्द का अर्थ है- उत् + आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ। तटस्थ, पक्षपात से रहित। उदासीन शब्द निर्लिप्तता का द्योतक है। किसी भी अवस्था, घटना-परिस्थिति आदि का भक्त पर कोई असर नहीं पड़ता, वह सदा निर्लिप्त रहता है इसीलिए वह उदासीन है।
कोई व्यक्ति भक्त का हित चाहता है तो कोई भक्त का अहित चाहता है। इस प्रकार मित्र और शत्रु समझे जाने वाले व्यक्ति के साथ भक्त के बाहरी व्यवहार में फर्क मालूम दे सकता है परन्तु भक्त के अन्तःकरण में दोनों मनुष्यों के प्रति तनिक भी भेद-भाव नहीं होता। वह दोनों स्थितियों में सर्वथा उदासीन अर्थात् निर्लिप्त रहता है।
भक्त के अन्तःकरण में अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। वह शरीर सहित सम्पूर्ण संसार को परमात्मा का ही मानता है इसलिए उसका व्यवहार पक्षपात से रहित होता है।
“गतत्यथ:”- कुछ मिले या न मिले, कुछ भी आए या चला जाए, जिसके चित्त में दुःख, चिन्ता, शोक रूप हलचल कभी होती ही नहीं, उस भक्त को यहाँ गतव्यथः कहा गया है। अनुकूलता तथा प्रतिकूलता से अन्तःकरण में होने वाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारों के सर्वथा अभाव को यह गतव्यथः कहा गया है।
“सर्वारम्भपरित्यागी”- भोग और संग्रह के उद्देश्य से नए-नए कर्म करने को आरम्भ कहते हैं जैसे- सुख भोग के उद्देश्य से घर में नई-नई चीजें इकठ्ठी करना, वस्त्र खरीदना| रूपये (Money) बढ़ाने के उद्देश्य से नई-नई दुकानें खोलना, नया व्यापार शुरू करना आदि। भक्त भोग और संग्रह के लिए किए जाने वाले मात्र कर्मों का सर्वथा त्यागी होता है।
जिसका उद्देश्य संसार का है और जो वर्णाश्रम, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदि को लेकर अपने में विशेषता देखता है, वह भक्त नहीं होता। भक्त भगवननिष्ठ होता है अतः उसके कहलाने वाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, क्रिया, फलादि सब भगवान् के अर्पित होते हैं। वास्तव में सबके स्वामी भगवान् ही। प्रकृति और प्रकृति का कार्य मात्र भगवान् का है। अतः भक्त एक भगवान के सिवाय किसी को भी अपना नहीं मानता। वह अपने लिए कभी कुछ नहीं करता। उसके द्वारा होने वाले कर्म भगवान् की प्रसन्नता के लिए ही होते हैं। धन-सम्पत्ति (Wealth), सुख-आराम (Comfort), मान-बढ़ाई आदि के लिए किए जाने वाले कर्म (Deed) उसके द्वारा कभी होते ही नहीं।
जिसके भीतर परमात्म तत्व (Divine Element) की प्राप्ति की ही सच्ची लगन लगी है, वह साधक चाहे किसी भी मार्ग का क्यों न हो, भोग-भोगने और संग्रह करने के उद्देश्य से वह कभी कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता।
“यो मद्भक्तः स मे प्रिय”-भगवान् में स्वाभाविक ही इतना महान् आकर्षण है कि भक्त स्वतः उनकी ओर खिंच जाता है, उनका प्रेमी हो जाता है।–(श्रीमद् भागवत 1/7/10)
‘‘ज्ञान के द्वारा जिनकी चिद् जड़ ग्रन्थि कट गई है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान् की हेतु रहित (निष्काम) भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियों को अपनी ओर खींच लेते हैं।”
वास्तव में देखा जाए तो जीव भगवान का ही अंश है। अतः उसका भगवान् की ओर स्वतः स्वाभाविक आकर्षण होता है। परन्तु जो भगवान वास्तव में अपने हैं उनको तो मनुष्य ने अपना माना नहीं और जो मन-बुद्धि, शरीर, कुटुम्बादि अपने नहीं है, उनको उसने अपना मान लिया। इसलिए वह शारीरिक निर्वाह और सुख की कामना से सांसारिक भोगों की ओर आकृष्ट हो गया तथा अपने अंशी भगवान् से दूर (विमुख) हो गया। फिर भी उसकी यह दूसरी वास्तविक नहीं माननी चाहिये क्योंकि भगवान तो सर्वत्र परिपूर्ण हैं एवं उसकी आत्मा के रूप में भी वे ही हैं।
भक्त की दृष्टि में सब कुछ भगवान् ही भगवान् होते हैं। इसलिए भक्त को भगवान् अत्यन्त प्रिय हैं।
जब नाशवान भोगों की ओर साधक को आकर्षण नहीं रहता तब वह स्वतः ही भगवान की ओर खिंच जाता है। संसार में किंचित मात्र भी आसक्ति न रहने से भक्त का एक मात्र भगवान् में स्वतः प्रेम होता है। ऐसे अनन्य प्रेमी भक्त को भगवान ‘‘मद्भक्त’’ कहते हैं। जिस भक्त का भगवान् में अनन्य प्रेम है वह भगवान् को प्रिय होता है।
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।