अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ।।13।।
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।14।।
श्री भगवान् बोले – जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
व्याख्या (Interpretation Of Sloka 13,14 | Bhagavad Gita Chapter 12)-
‘‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां’’- भक्त के शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सिद्धान्त के प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकार का व्यवहार करे, इष्ट की प्राप्ति में बाधा डाले, किसी प्रकार की आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये पर भक्त के हृदय में उसके प्रति कभी किंचिन मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणीमात्र में अपने प्रभु को ही व्याप्त देखता है। ऐसी स्थिति में वह विरोध करे तो किससे करे?
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध। – (मानस 7/112 ख)
प्राणी मात्र स्वरूप से भगवान का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणी के प्रति थोड़ा भी द्वेष भाव रहना भगवान् के प्रति ही द्वेष है। किसी प्राणी के प्रति द्वेष रहने पर भगवान से अभिन्नता तथा अनन्य प्रेम नहीं हो सकता। प्राणी मात्र के प्रति द्वेष भाव से रहित होने पर ही भगवान् में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिए भक्त में किसी के प्रति द्वेष नहीं होता।
‘‘मैत्रः करूण एव च’’- भक्त के अन्तःकरण में सम्पूर्ण प्राणियों में भगवद्भाव होने के नाते उसका सबसे मैत्री और दया का व्यवहार होता है। भगवान् प्राणीमात्र के सुह्रद है।- (गीता 5/29)
भगवान का स्वभाव भक्त में अवतरित होने के कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियों का सुह्रद होता है। – (भागवत् 3/25/21) इसलिए भक्त का भी सभी प्राणियों के प्रति बिना किसी स्वार्थ के स्वाभाविक ही मैत्री और दया का भाव रहता है।
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्हं तुम्हार सेवक असुरारि।। – (मानस 7/47/3)
अपना अनिष्ट करने वालों के प्रति भी भक्त के द्वारा मित्रता का व्यवहार होता है। क्योंकि उसका यह भाव रहता है कि सब कुछ भगवान के विधान के अन्तर्गत है। कारण कि भगवान् का विधान सदैव मंगलमय होता है। भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करने वाला मेरे पूर्व पाप कर्मों का नाश कर रहा है। अतः उससे द्वेष नहीं करता।
पतंजलि योग दर्शन में चित्त बुद्धि के चार हेतु बताये गये हैं-
सुखियों के प्रति मैत्री,
दुखियों के प्रति करूणा,
पुण्यात्माओं के प्रति प्रसन्नता और
पापात्माओं के प्रति उपेक्षा भाव
से चित्त में निर्मलता आती है। यहाँ भक्त पाप करने वालों से भी द्वेष नहीं करता वरन ध्यान हटा लेता है। भगवान ने इन चारों हेतुओं को दो में विभक्त कर दिया है- मैत्रः च करूणः। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त का सुखियों और पुण्यात्माओं के प्रति ‘‘मैत्री’’ का भाव तथा दुखियों और पापात्माओं के प्रति ‘‘करूणा’’ का भाव रहता है।
“निर्मम”- प्राणियों और पदार्थों में ममता (मेरे पन का भाव) ही मनुष्य को संसार में बांधने वाली होती है। भक्त ममता से सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन-बुद्धि में भी बिल्कुल ममता नहीं होती। साधक से भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थों से तो ममता को हटाने की चेष्टा करता है पर अपने शरीर, मन, बुद्धि से ममता हटाने की ओर विशेष ध्यान नहीं देता इसलिए वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता।
“निरअहंकार”- शरीर, मन आदि पदार्थों को अपना स्वरूप मानने से अहंकार उत्पन्न होता है। भक्त की अपने सुख आदि के प्रति किंचिन् मात्र भी अहम् बुद्धि न होने के कारण तथा केवल भगवान् से अपने नित्य सम्बन्ध का अनुभव हो जाने के कारण उसके अन्तःकरण में स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक, गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणों को भी वह अपने गुण नहीं मानता। प्रत्युत दैवी सम्पत्ति होने से भगवान् के ही मानता है। इसलिए वह अहंकार से सर्वथा रहित होता है।
“सम दुखः-सुखः”– भक्त सुख-दुखों की प्राप्ति में सम रहता है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता उसके हृदय में राग-द्वेष, हर्ष-शोक, आदि विकार पैदा नहीं कर सकते। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है।
भक्त के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, सिद्धान्त आदि के अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदि का संयोग या वियोग होने पर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलता का ज्ञान तो होता है, पर उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोक आदि कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। जैसे प्रारब्धानुसार भक्त के शरीर में कोई रोग होने पर उसे शारीरिक पीड़ा का ज्ञान (अनुभव) तो होगा, किन्तु उसके अन्तःकरण में किसी प्रकार का विकार (राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि) नहीं होगा।
“क्षमीः”- अपना किसी तरह का भी अपराध करने वाले को किसी भी प्रकार का दण्ड देने की इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देने वाले को क्षमी कहते हैं।
‘‘संतुष्ट: सततं’’- जीव को मन के अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि के संयोग में और मन के प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि के वियोग में एक संतोष होता है। संसार विजातीय है एवं अनित्य है इस कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होने के कारण, नित्य परमात्मा की अनुभूति से ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है।
भगवान को प्राप्त होने पर भक्त नित्य निरन्तर संतुष्ट रहता है। क्योंकि न तो उसका भगवान् से कभी वियोग होता है और न उसको नाश्वान संसार की कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोष का कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टि के कारण वह संसार के किसी भी प्राणी पदार्थ के प्रति किंचिन मात्र भी महत्व बुद्धि नहीं रखता।
“योगी”- भक्ति योग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त (नित्य निरन्तर परमात्मा से संयुक्त) पुरुष का नाम यहाँ ‘‘योगी’’ है। वास्तव में किसी भी मनुष्य का परमात्मा से कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकता का जिसने अनुभव कर लिया है, वही योगी है।
‘‘यतात्मा’’- जिसका मन, बुद्धि, इन्द्रियों सहित शरीर पर पूर्ण अधिकार है, वह यतात्मा है। सिद्ध भक्त को मन-बुद्धि आदि वश में करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वश में रहते हैं। इसलिए उसमें किसी प्रकार के इन्द्रिय जन्य दुर्गुण – दुराचार के आने की सम्भावना ही नहीं रहती। भक्त का संसार से जरा भी राग-युक्त सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए उसकी मन-बुद्धि सर्वथा उसके वश में होती है। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरों के लिए आदर्श होती हैं।
ऐसा देखा जाता है कि न्याय पथ पर चलने वाले सत्पुरुषों की इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्ग गामी नहीं होती। तब सिद्ध भक्त (जो न्याय धर्म से कभी किसी अवस्था में गिरता नहीं) की मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ कुमार्ग की ओर जा ही कैसे सकती हैं।
“दृढ़निश्चयः”- सिद्ध महापुरूष की दृष्टि में संसार की स्वतन्त्र सत्ता का सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धि में एक परमात्मा की ही अटल सत्ता रहती है। उसको एक भगवान के साथ ही अपने नित्य सिद्ध सम्बन्ध का अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान् में ही दृढ़ निश्चय होता है।
“मय्यर्पित मनो बुद्धि”- जब साधक एकमात्र भगवद् प्राप्ति को ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान का ही हो जाता है (जो कि वास्तव में है) तब उसके मन-बुद्धि भी अपने आप भगवान में लग जाते हैं।
जहाँ प्रेम होता है, वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्य का मन लगता है, और जिसे मनुष्य सिद्धान्त से श्रेष्ठ समझता है, उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्त के लिए भगवान् से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन-बुद्धि पर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान् का ही मानता है। अतः उसके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान् में लगे रहते हैं।
“यः मद्भक्तः समे प्रियः”- भगवान को तो सभी प्रिय हैं, परन्तु भक्त का प्रेम भगवान् के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशा में भगवान् की प्रतिज्ञा (गीता 4/11) के अनुसार भगवान् को भी भक्त प्रिय होता है।
परिशिष्ट भाव-
भक्त में आरम्भ से ही मित्रता और करूणा होती है। कर्मयोगी और ज्ञानयोगी में समता तो होती है पर मित्रता और करूणा नहीं होती।
भक्त की दृष्टि में सम्पूर्ण प्राणी भगवान् का ही रूप है, फिर कौन वैर करे? किससे करे? और क्यों करे? भक्त प्रेमी होते हैं और ज्ञानयोगी के मिलने पर उनका जितना आदर कर सकते हैं, ज्ञानयोगी भक्त का नहीं कर सकता। इसलिए भक्तों का लक्षण बताया है-
‘‘सबहिं मानप्रद आप अमानी’’ (मानस, उत्तरकांड – 38/2)
सुख लेने में कठोरता रहती है और सुख देने में कोमलता रहती है। दूसरों को सुख देने का भाव होने से भक्त में आरम्भ से ही कोमलता रहती है।
प्रत्येक साधक के लिए निर्मम और निरअहंकार होना बहुत आवश्यक है। भगवान् ने गीता में कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग – तीनों ही योग मार्गों में निर्मम और निरहंकार होने की बात कही है। वास्तव में हमारा स्वरूप अहमता-ममता से रहित है।
- कर्मयोग में पहले कामना का त्याग होता है, फिर कर्मयोगी स्वतः निर्मम निरहंकार हो जाता है। – (गीता 2/71)
- ज्ञानयोग में पहले अहंकार का त्याग होता है, फिर ज्ञानयोगी स्वतः निर्मम हो जाता है। – (गीता 18/53)
- भक्तियोग में भक्त अपने आपको भगवान् केे अर्पित कर देता है और भगवद् कृपा से वह स्वतः निर्मम निरंहकार हो जाता है।
भगवान ज्ञान स्वरूप और नित्य परिपूर्ण है। अतः उनमें ज्ञान की जिज्ञासा तो नहीं है, पर प्रेम की भूख अवश्य है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि मेरे में अर्पित मन-बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है वह मेरे को अत्यन्त प्रिय है। ऐसे भक्त के सिवाय भगवान को प्यारा और कोई हो ही नहीं सकता।
जैसे किसी राजा का बेटा दूसरों से भीख मांगने लगे तो वह राजा को नहीं सुहाता, ऐसे ही सद्चित आनंद स्वरूप भगवान् का अंश जीव जब असत् जड़ दुःख रूप संसार से कुछ आशा रखता है या अपनापन करता है, तब वह भगवान को नहीं सुहाता, प्यारा नहीं लगता। क्योंकि इसमें जीव का महान अहित है। भगवान को वही प्यारा लगता है, जो अन्य से आशा नहीं रखता।
संकलित – श्रीमद् भगवद् गीता।
साधक संजीवनी- श्रीस्वामी रामसुखदासजी।