भक्त रसखान (Bhakt Raskhan)
रस की खान, भक्त शिरोमणि, रसखान जिनका हृदय परम भगवद भक्त, और कृष्ण भक्ति प्रेम से ओतप्रोत था। इनका जन्म 1578 में पिहानी हरदोई उत्तरप्रदेश में, पठान परिवार में हुआ। बचपन में इनका नाम सैयद इब्राहीम था, इनका परिवार भी भगवद भक्त था। बचपन में माता-पिता के स्नेह के साथ ऐश्वर्य व लाढ़ प्यार भी खूब मिला। पारिवारिक पृष्ठभूमि धार्मिक होने के कारण रसखान को भी धार्मिक जिज्ञासा बचपन में ही मिल गई।
कुछ वैष्णव के अनुसार रसखान एक बनिए परिवार की लड़की पर बेहद आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किन्हीं को यह कहते सुना-“भगवान से ऐसा प्रेम होना चाहिए, जैसा प्रेम रसखान को अमुक बनिए की कन्या से है।” बस इस बात ने इनको झंझोड़ कर रख दिया। अब तो इनके अंदर में भगवान के प्रति प्रेम की ललक जाग उठी और ये घर से निकल पड़े।
रास्ते में कहीं भगवद् कथा हो रही थी, व्यास गद्दी पर बैठे कथाकार बहुत ही सुबोध और सरल भाषा में भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का बड़े सुंदर ढंग से वर्णन कर रहे थे, जो इनके ह्रदय को छू गई। अकस्मात इनकी नज़र भगवान श्यामसुंदर की रखी फोटो पर पड़ी और वहीं ठहर गईं। काफी समय तक टकटकी लगा कर देखते रहे। उनके नेत्र भगवान के मनोहारी रूप से हट नहीं रहे थे| जैसे चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है ऐसे ही रसखान का हृदय मनोहारी मनमोहन की मोहिनी सूरत की तरफ खिंचा जा रहा था। यहाँ तक की कथा समाप्त हो गई, श्रोतागण चले गए। इन्हें कोई होश नहीं, क्योंकि इनकी नज़रें तो जेसे अपलक हो गई। व्यास जी ने इस अदभुत बालक के प्रेम को पहचाना और पूछा- वत्स क्या निहार रहे हो?
बालक ने बड़ी विनम्रता से पूछा- “पंडित जी! क्या सामने रखा चित्र भगवान कृष्ण का ही है?”
पंडित जी ने कहा- “हाँ! यह उन्हीं नटवर नागर चित्तचोर का चित्र है।”
रसखान के नैनों में जेसे भगवान का रूप माधुर्य समां गया हो, गदगद कंठ से बोले “क्या कोई इतना दर्शनीय और मनभावन भी हो सकता है?”
व्यास जी ने कहा- “जिसने इतनी सुंदर सृष्टि का निर्माण किया है वह दर्शनीय और मनभावन तो होगा ही।”
अब तो रसखान बड़े प्रेम से बोले- “पंडित जी! यह मनमोहिनी सूरत तो मेरे ह्रदय में समां गई है, अब तो यह साक्षात् मुखमंडल देखने का अभिलाषी है। आप मुझे इनका पता बता दो, मैं शीघ्र अति शीघ्र इनसे मिलकर अपने ह्रदय की तड़प को शांत कर सकूं।”
व्यास जी ने कहा- “भैया! ये तो ब्रज के नायक हैं, ब्रज में ही मिलेंगे।”
रसखान तुरंत ही ब्रज के लिए निकल पड़े। जिसके ह्रदय में भाव जागृत हो जाएँ, प्रभु मिलन की तीव्र उत्कंठा जागृत हो जाये, उसे इसके आगे और कुछ नहीं सूझता। जैसे ही ब्रज भूमि का स्पर्श पाया, उसमें लोट लगाते-लगाते इनके ह्रदय की मलिनता नष्ट हो गई और प्रेम की अश्रुधारा बह चली। तत्पश्चात कालिंदी के परम पवित्र जल की शीतलता के स्पर्श से रसखान के भावपूर्ण ह्रदय में प्रेमवेग से कम्पन्न होने लगा। वृन्दावन के कण-कण से गूंजती कृष्ण नाम की सुरीली धुन ने उन्हें आह्लादित कर दिया। धामों में धाम परमधाम वृन्दावन जैसे स्वर्ग की अनुभूति करा रहा था। इस दिव्य धाम की अनुभूति को रसखान जी ने अपने पद में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-
“या लकुटी अरु कमरिया पर राज तिहु पुर कौ तजि डारो।
आठों सिद्धि नवो निधि कौ सुख नन्द की गाय चराय बिसारो।
रसखान सदा इन नयनन सों ब्रज के वन तडाग निहारौ।
कोनही कलधौत के धाम करील को कुंजन ऊपर वरों।”
एक दिन रसखान के मन में गोवर्धन धाम जाने की इच्छा हुई, तुरंत ही चल दिए। वहां पहुँचने पर बड़े प्रसंचित्त से श्रीनाथ जी के दर्शन के लिए मंदिर में प्रवेश के लिए घुसने लगे। वहां खड़े पुजारी ने टोकते हुए कहा- अरे कहाँ घुसे जा रहे हो? तुम्हारी वेश-भूषा तो दूसरी है, तुम मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते।
ये कैसा प्रतिबन्ध! वेशभूषा का भक्ति से क्या सम्बन्ध?
पुजारी ने कहा- “मैं कुछ नहीं सुनना चाहता, तुम्हे मंदिर में नहीं घुसने दूंगा।”
“भाई! मैं भी इंसान ही हूँ। सबकी तरह मैंने भी एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है। आपकी तरह ईश्वर ने मुझे भी सिमरन और दर्शन का अधिकार दिया है, फिर तुम मुझे कैसे दर्शन नहीं करने दोगे?
पुजारी ने कहा- “अपने ये तर्क किसी और को सुनाना, मैं विधर्मी को मंदिर में नहीं घुसने दूंगा।” परन्तु…… तुम इस प्रकार नहीं मानोगे?
पुजारी ने गुस्से से रसखान को सीढियों से धक्का दे मारा।
रसखान को ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी, वे बहुत ज्यादा दुखी हुए और साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ कि ब्रज में ऐसी मति वाले इंसान भी रहते हैं। उनका कृष्ण प्रेम हिल्लोरे मार रहा था, उन्होंने अपने प्रियतम कृष्ण से मन ही मन आर्त पुकार की और अगले दिन से दर्शन की चाहत में अन्न-जल त्याग दिया।
भगवान भला कब अपने भक्त की ह्रदय वेदना से अनभिज्ञ थे। भक्त की विकलता तो भगवान को भी विचलित कर देती है, उन्हें भला भक्त का दुःख कहाँ सहन होता है।भक्तवत्सल भगवान श्री कृष्ण ने अपने भक्त की पीड़ा हरने के लिए साक्षात् रूप प्रकट किया, पुजारी के दुर्व्यवहार की क्षमा मांगी और गोसाईं विट्ठल नाथ जी के पास जाने का आदेश दिया।
अपने प्रियतम प्रभु का आदेश पाकर रसखान गोसाईं जी के पास तुरंत पहुंचे। गोसाईं जी ने उन्हें गोविन्द कुंड में स्नान कराकर दीक्षित किया। सतगुरु का सान्निध्य लाभ मिलते ही रसखान की भक्ति का स्रोत फूट पड़ा, जो काव्य के रूप में बह निकला। अब तो भगवान कृष्ण की लीलाओं को अपने काव्य के रूप में वर्णन करते हुए आजीवन ब्रज में ही रह गए। केवल कृष्ण को ही अपना सखा, सम्बन्धी, मित्र मानते हुए काव्य की ऐसी सुंदर रचनाएँ लिखीं की वो सचमुच ही रस-की-खान बन गईं। अब तो उनकी एक ही लालसा थी-
“मानुष हो तो वही रसखान ,बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हो तो कहा बस मेरो चारो नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हो तो वही गिरी को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हो तो बसेरो करो नित कालिंदी फुल कदम्ब कि डारन।”
मेरा जब कभी भी जन्म हो तो यहीं ब्रज भूमि पर ही हो, मनुष्य बनूँ तो रसखान के ही रूप में जन्म हो, पशु बनूँ तो नन्द के आंगन की ही गैया बनूँ, पर्वत बनूँ तो यही गोवर्धन ही बनूँ और अगर पंछी बनूँ तो इसी कालिंदी के तट पर कदम्ब वृक्ष पर ही बसेरा करूँ।
इस प्रकार उच्च कोटि के काव्य और भक्ति के धनी रसखान ने प्रभु सिमरन करते हुए 45 वर्ष की आयु में निज धाम की यात्रा पूर्ण की, एक अद्भुत घटना घटी वो ये कि जिनके दर्शन के लिए अनेकों योगी, सिद्धपुरुष, परम भक्त आदि जन तरसा करतें हैं, उन्हीं भक्त वत्सल भगवान कृष्ण ने अपने निज हाथों से अपने इस प्रिय भक्त की अन्तेय्ष्टि कर भक्त की कीर्ति को बढाया। धन्य हैं ऐसे महान रसखान जिन्हें प्रेमपाश में बंधे भगवान की कृपा और दर्शन दोनों का परम सौभाग्य मिला।