भक्त पुरन्दरदास जी (Bhakt Purandara Dasa)
सोलहवीं शताब्दी का समय, कर्नाटक के विजयनगर राज्य के उत्कर्ष का शानदार समय था। विजय नगर के सम्राट कृष्णदेव राय न केवल सांस्कृतिक और धार्मिक बल्कि सामाजिक क्षेत्र के भी उस दौर के सबसे महानतम राजाओं में प्रसिद्ध थे। इस राज्य का, भक्ति काल को बुलंदियों पर पहुँचाने का विशेष योगदान है। इसी राज्य की बहुमूल्य भेंट है- श्रेष्ठ कवि, महान संगीतकार, धर्म का अवतार महान संत श्री पुरन्दरदास।
जो स्थान बंगाल में गौरांग महाप्रभु का, महाराष्ट्र में संत तुकाराम का, मारवाड़ में मीरा बाई का, उत्तर प्रदेश में गोस्वामी तुलसीदास जी का, तमिलनाडु में त्याग राजा का था, वही स्थान कर्नाटक में भक्त पुरन्दरदास जी का था। उन्हें कर्णाटक संगीत का भीष्म पितामह भी कहा जाता है।
भक्त पुरन्दरदास जी का जीवन परिचय (The Life Story Of Bhakt Purandara Dasa)
भक्त पुरन्दरदास का जन्म लगभग 1484 में पंढरपुर के पास पुरन्दरगढ़ नगर में वरदप्पा नायक नामक एक सम्पन्न व्यापारी के यहाँ हुआ। इनके पिता ने इनका नाम श्रीनिवास रखा था। इन्हें बचपन से ही परंपरागत तरीके से उत्तम शिक्षा मिली जिसमें से कन्नड़, संस्कृत, धार्मिक विद्या तथा संगीत में उन्हें निपुणता हासिल थी। 16 वर्ष की आयु में इनका विवाह सरस्वती से हुआ।
20 वर्ष की आयु में इनके पिता का देहांत हो गया और सारे कारोबार का भार इनके कंधो पर आ गया। ये व्यापार में अपने पिता की तरह बड़े कुशल थे। विजयनगर और गोलकुंडा के राज्यों से हीरे, मोती, माणिक्य आदि रत्नों का व्यापार करके श्रीनिवास ने अपनी सम्पति बहुत बढ़ा ली थी।
जैसे-जैसे धन बढता गया श्रीनिवास की कंजूसी भी बढ़ती गई। उदारता, दया, क्षमा आदि सदगुण नष्ट होते गये। जो लोग धन का सही उपयोग, दान-पुण्य आदि नहीं करते और सिर्फ धन का संचय करते हैं, उनके धीरे-धीरे सारे सदगुण और पुण्य समाप्त होने लगते हैं। श्रीनिवास को किसी को भी कुछ देना अपने प्राण देने के समान लगता था।
श्री भगवान की अहैतुकि कृपा से भक्त पुरन्दरदास जी के जीवन में बदलाव व चमत्कार (Shri Hari’s Mercy On Bhakt Purandara Dasa To Change His LIfe Forever)
किसी जीव के पूर्वजन्म के कर्म कैसे हैं यह उसके वर्तमान जीवन से अनुमान नहीं किया जा सकता है, पता नहीं कब भगवान की अहैतुकि कृपा हो जाये।
एक दिन पूर्वजन्म के सद्कर्म के कारण श्रीनिवास पर भगवान की कृपा हुई, स्वयं भगवान एक दरिद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके श्रीनिवास के पास आये और बड़ी दीनता से प्रार्थना करने लगे- मैं अत्यंत गरीब हूँ, मेरी पुत्री विवाह योग्य है, अत: आप मेरी कुछ सहायता कीजिये। श्रीनिवास ने पीछा छुड़ाने के लिए कल आने को कहा। अगले दिन वह ब्राह्मण फिर से आ गया। श्रीनिवास ने फिर से कल आने को कहा। इस प्रकार 6 महीने तक ब्राह्मण रोज आता रहा और श्रीनिवास कल आने को कहता रहा। एक दिन गुस्से में श्रीनिवास ने ब्राह्मण को रद्दी पैसों में से एक पैसा लेकर कभी न आने को कहा। ब्राह्मण एक पैसा लेकर चले गये।
श्रीनिवास की पत्नी सरस्वती बहुत उदार हृदय की थीं। भगवान से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है वह तो सब जानते हैं इसलिए ब्राह्मण (भगवान) श्रीनिवास के घर पँहुचे, उनकी पत्नी को सब बताया और सहायता के लिए प्रार्थना की।सरस्वती ने अपना हीरा जड़ित नकफूल ब्राह्मण देवता को देकर कृष्ण अर्पण कर दिया। अब वह ब्राह्मण नकफूल लेकर श्रीनिवास के पास आया और नकफूल के बदले चार सौ मोहरें माँगी। श्रीनिवास को वह नकफूल अपनी पत्नी का लगा। उसने नकफूल लेकर दुकान में सुरक्षित जगह रख दिया और ब्राह्मण देवता से कहा- तुम कल आना।
घर आकर श्रीनिवास ने अपनी पत्नी से उसका नकफूल माँगा, वो कहाँ हैं? डर के मारे पत्नी के मुहँ से निकला नकफूल भीतर रखा है।
श्रीनिवास- जल्दी ला नहीं तो जमीन में गाड़ दूँगा। आत्महत्या करने के अतिरिक्त उसे कोई मार्ग ना सूझा। एक कटोरी में विष घोल कर उसने भगवान से प्रार्थना की- दयामय भगवान मैंने आपकी प्रसन्नता के लिए नकफूल ब्राह्मण को दिया था। यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे पति की बुद्धि शुद्ध कीजिये। वे आपका भजन करें और दान पुण्य आदि करें। प्रार्थना करके जैसे ही विष पीना चाहा तभी उसे कटोरी में कुछ गिरने की आवाज आई, देखा तो वह उसी का नकफूल था उसके नेत्र अश्रु से भर आये।श्रीनिवास की पत्नी सरस्वती को भगवान की कृपा का साक्षात्कार हुआ। सरस्वती ने नकफूल लाकर श्रीनिवास के हाथ में रख दिया। नकफूल देखकर श्रीनिवास आश्चर्य में पड़ गया।
अगले दिन श्रीनिवास ने ब्राह्मण को नकफूल के बदले पैसे दे दिये और अपने एक कर्मचारी को ब्राह्मण का पीछा करने को कहा। कर्मचारी ने श्रीनिवास को आकर बताया कि वह ब्राह्मण पुरन्दर मंदिर में जाकर अंतर्ध्यान हो गये हैं। ये बात सुनते ही श्रीनिवास ने नकफूल देखा, तो वह अपनी जगह पर नहीं था। यह सब देखकर वह हक्का-बक्का रह गया।
भक्त पुरन्दरदास जी का वैराग्य (Dispassion Followed By Bhakt Purandara Dasa)
दुकान बंद करके वह घर आया और अपनी पत्नी से सारी बात सच्ची सच्ची बताने को कहा- अब श्रीनिवास के भाव बदल गये थे, पत्नी ने सारी बात सच्ची सच्ची बता दी।उसी समय श्रीनिवास ने भगवान की पूजा की, उसकी आँखे भर आयीं। भगवान आप पापी के यहाँ दरिद्र ब्राह्मण बनकर आये और मैं आपको पहचान भी नहीं पाया, टालता रहा। अब उसने तुलसी दल और जल लेकर अपनी समस्त सम्पत्ति कृष्णापर्ण कर दी।
उसने सारा धन ब्राह्मणों, गरीबों और जरूरतमंदों में बाँट दिया, अपने पास कुछ नहीं रखा। सच्चे अपरिग्रही होकर वे पंडरपुर पँहुचे। यहाँ नाम कीर्तन करते हुए द्वार-द्वार भिक्षा मांगते और जो मिल जाता उसी से परिवार का काम चलाते। बारह वर्ष पंडरपुर रहें। जब वहाँ यवनों का उत्पात बढ़ गया तब विजयनगर चले गये। विजयनगर नरेश श्री कृष्णदेव राय रत्नों के व्यापारी श्रीनिवास नायक से परिचित थे, राजा को आश्चर्य हुआ। राजा के गुरु थे कवि श्रेष्ठ स्वामी व्यास राय जी; श्रीनिवास ने उन्हीं की शरण ली। स्वामी जी ने सुयोग्य शिष्य को वेद, पुराण, स्मृति आदि का अध्ययन कराया और दास परम्परा में दीक्षित किया।
गुरु ने श्रीनिवास का नाम पुरंदर विट्ठल रखा। आगे चलकर ये ही पुरंदर दास कहलाये। ये कभी संग्रह ना करते, भिक्षा के अन्न से अपने परिवार को चलाते थे और भजन करते थे। इनका संगीत ज्ञान अभूतपूर्व था, राग और ताल की जानकारी अद्भुत थी, संस्कृत भाषा के साथ-साथ नाट्यशास्त्र में भी दक्षता हासिल थी। ऐसी मान्यता है कि भक्त पुरन्दरदास महऋषि नारद जी के अवतार थे।
राजा कृष्णदेव राय ने राजगुरु से प्रायः भक्त पुरन्दर दास की सादगी की बहुत ज्यादा प्रशंसा सुनी। एक दिन महाराज ने अपने सेवकों को भेज पुरन्दरदास को महल भिक्षा देने को बुलवाया, राजा ने भिक्षा के निमित्त रखे चावलों में कीमती हीरे मिलवा दिए, और पुरन्दरदास को बड़ी विनम्रता से दे दिये।
पत्नी ने चावल बनाने के लिए बीने तो उसमें बहुत से हीरे दिखे। पति से पुछा तो पता चला भिक्षा राजा साहब ने स्वयं बुलाकर दी है। पत्नी सरस्वती देवी जो बहुत ज्यादा आध्यात्मिक, धार्मिक विचारों वाली थी, समझ गईं और हीरे घर के पीछे मिटटी के ढेर पर फ़ेंक आई। अगले दिन पुरन्दरदास राजा के पास भिक्षा लेने गए, राजा ने उनके चेहरे पर हीरों की चमक जैसी प्रसन्नता देखी। एक सप्ताह तक यही सिलसिला जारी रहा। अनायास राजा ने राजगुरु से कहा, आप तो इनकी सादगी की तारीफ करते नहीं थकते थे परंतु मुझे तो ये लोभी जान पड़ते हैं। सच्चाई का पता लगाने को दोनों पुरन्दर के घर जाकर देखते हैं कि उनकी पत्नी चावल बीन रही है। राजगुरु ने पूछा, बहिन क्या कर रही हो?
सरस्वती देवी ने कहा- चावल बीन रही हूँ भाई! कोई गृहस्थ इसमें कंकड़ डाल देता है।
राजा ने कहा- बहन, मुझे तो ये कंकड़ नहीं बहुमूल्य हीरे प्रतीत होते हैं।
सरस्वती देवी- हीरे होंगे आप लोगों के लिए, हमारे लिए तो महज कंकड़ हैं और झट से बीने हुए कंकड़ों को कूड़े के ढ़ेर पर फेंक आई।
राजा बहुत ज्यादा शर्मिंदगी महसूस करते हुए श्रद्धापूर्वक माँ सरस्वती के चरणों में झुक गये।
पुरन्दरदास जी के कीर्तन के पदों में लोक शिक्षा, वैराग्य, तत्वज्ञान और भगवद्भक्ति के गम्भीर भाव हैं। इन्होनें अपने 40 वर्षों के सक्रिय जीवन में असंख्य भक्ति पदों की रचना की। अस्सी वर्ष की अवस्था में 1564 में भगवद्धाम पधारे।
वास्तव में भारतवर्ष में एक से बढ़कर एक संत हुए जिनका जीवन हम सब के लिए प्रेरणादायी है।